शिव सेना ने ऐलान किया है कि वो महाराष्ट्र के बाहर यानी कि उत्तर प्रदेश और गोवा में भी चुनाव लड़ेगी. ये कोई पहली बार नहीं है कि शिव सेना ने महाराष्ट्र के बाहर भी पैर पसारने की कोशिश की हो. पार्टी के दिवंगत प्रमुख बाल ठाकरे शिव सेना को एक राष्ट्रीय पार्टी के तौर पर देखना चाहते थे, लेकिन उनका ये ख्वाब कभी पूरा हो न सका. आखिर शिव सेना महाराष्ट्र के बाहर क्यों नहीं पनप पायी, इसकी कहानी बड़ी ही दिलचस्प है. इस हफ्ते का सियासी किस्सा ठाकरे के इसी अधूरे ख्वाब पर.
अगर किसी राज्य में पार्टी खड़ी करनी है तो वहां जाकर पार्टी के बडे नेताओं को सभाएं लेनी पड़ती हैं, रैलियां निकालनीं पडतीं हैं, स्थानीय मुद्दों को पुरजोर तरीके से उठाना पड़ता और राज्य के बड़े चेहरों को पार्टी के साथ जोड़ना पड़ता है. क्या शिव सेना ने ये सब किया? नहीं. शिव सेना के व्यवहार से यही नज़र आया कि पार्टी अधूरे मन से महाराष्ट्र के बाहर चुनाव लड़ रही है.
शिवसेना पहली बार 1995 में सत्ता में आई
86 साल की उम्र में ठाकरे के निधन से पहले उनका एक सपना तो पूरा हो गया कि महाराष्ट्र के विधान भवन पर भगवा लहराये. 1995 में उनकी पार्टी बीजेपी के साथ मिलकर पहली बार सत्ता में आ पायी. शिव सेना 60 के दशक में भूमिपुत्रों को न्याय दिलाने के मुद्दे को लेकर खड़ी हुई थी. लेकिन, 80 का दशक आते आते ठाकरे को ये लगा कि भूमिपुत्र यानी मराठी माणुष का मुद्दा शिव सेना को मुंबई और ठाणे से आगे नहीं फैला सकता. पार्टी के विस्तार के लिये एक व्यापक मुद्दे की जरूरत थी जो शिव सेना को कट्टर हिंदुत्वाद के रूप में मिल गया. हिंदुत्ववाद अपनाने के बाद बालासाहब को उम्मीद थी कि पार्टी महाराष्ट्र के बाहर भी अपने पैर पसारेगी और एक राष्ट्रीय पार्टी की शक्ल ले लेगी, लेकिन ऐसा हो न सका.
शिवसेना की ओर से हिंदुत्व का मुद्दा अपनाने और बालासाहब की निजी छवि ने महाराष्ट्र के बाहर भी खासकर उत्तर प्रदेश, दिल्ली, राजस्थान और जम्मू-कश्मीर में कई युवाओं को आकर्षित किया. शिवसेना ने भी इस बात को प्रदर्शित किया कि वो गैर मराठियों के लिये खुली है और इसी के मद्देनजर साल 1993 में दोपहर का सामना नामक हिंदी सांध्य दैनिक निकाला और 1996 में मुंबई के अंधेरी स्पोर्ट्स कॉम्प्लैक्स में उत्तर भारतीय महा-सम्मेलन का आयोजन किया.
महाराष्ट्र से बाहर यूपी मिली कामयाबी
अगर महाराष्ट्र के बाहर किसी राज्य में शिवसेना को अधिकतम कामियाबी मिली तो वो राज्य था उत्तर प्रदेश, जहां पार्टी ने 1991 के चुनाव में एक विधानसभा सीट जीती. अकबरपुर सीट से एक स्थानीय बाहुबली नेता पवन पांडे शिवसेना का विधायक चुन लिया गया. शिवसेना ने उस दौरान लखनऊ, मेरठ, वाराणासी, अकबरपुर, बलिया और गोरखपुर के स्थानीय निकाय चुनावों में भी तगड़ी मौजूदगी हासिल की. बहरहाल, ये कामियाबी ज्यादा वक्त तक टिकी नहीं. पवन पांडे जो उत्तर प्रदेश में शिवसेना का सबसे मजबूत चेहरा बनकर उभरा था, अगला चुनाव हार गया. जब मायावती मुख्यमंत्री बनीं तो उन्होने अपने उन सियासी दुश्मनों को निशाना बनाना शुरू किया जिनका आपराधिक रिकॉर्ड था. चूंकि, पवन पांडे पर भी आपराधिक मामले दर्ज थे इसलिये मायावती की मुहीम से खुद को बचाने के लिये उसे कुछ वक्त उत्तर प्रदेश छोड़कर भागना पड़ा. पांडे की गैर मौजूदगी ने यूपी में शिवसेना के विस्तार को प्रभावित किया.
यूपी से भागने के बाद पांडे मुंबई में आकर बस गया और नवी मुंबई के जुईनगर में उसने एक डांस बार खोला. उसकी संजय निरूपम से भी अनबन हो गई, जिन्हें शिवसेना ने राज्यसभा सांसद और अपने उत्तर भारतीय कार्यक्रम का प्रभारी बना दिया था. आपराधिक मामले में पांडे की गिरफ्तारी से निरूपम को उसे पार्टी से निकाल फैंकने का एक मौका मिल गया. पांडे के निकाले जाने से शिवसेना य़ूपी में खडी होने से पहले ही लड़खड़ा गई. शिवसेना से निकाले जाने के बाद पवन पांडे बहुजन समाजवादी पार्टी से जुड़ गया. हालांकि, शिवसेना ने 90 के दशक में यूपी में 3 बार विधान सभा चुनाव लड़ा लेकिन बाल ठाकरे कभी खुद वहां चुनाव प्रचार के लिये नहीं गये. महाराष्ट्र से बाहर ठाकरे ज्यादा से ज्यादा गोवा तक चुनाव प्रचार के लिये गये थे.
दिल्ली में अब तक हाथ खाली
यूपी के विपरीत दिल्ली में शिवसेना आज तक एक भी विधानसभा सीट नहीं जीत पायी है, लेकिन पार्टी की दिल्ली इकाई अक्सर ख़बरों में रही है. जब बाल ठाकरे ने पाकिस्तानी खिलाडियों के खिलाफ अपने बैन का ऐलान किया तो जनवरी 1999 में शिव सैनिकों ने दिल्ली के फिरोज शाह कोटला मैदान की पिच खोद डाली. शिव सैनिकों ने शांति प्रक्रिया के तहत शुरू की गईं भारत-पाकिस्तान के बीच बसों की हवा निकाल दी. साल 2000 में अजय श्रीवास्तव जो कि भारतीय विद्यार्थी सेना से जुडे थे एकाएक मशहूर हो गये, जब उन्होने इनकम टैक्स विभाग की ओर से आयोजित की गई नीलामी में दाऊद इब्राहिम की संपत्ति पर बोली लगी. एक बार शिवसैनिकों ने यासीन मल्लिक पर हमला कर दिया जब अफजल गुरू को फांसी दिये जाने के बाद वो दिल्ली आये. शिवसैनिकों ने दिल्ली में ही एक पाकिस्तानी सूफी गायिका के कार्यक्रम में भी तोड़फोड़ की. हालांकि, दिल्ली के शिवसैनिकों की इस तरह की गतिविधियों को अख़बारों और टीवी चैनलों पर जगह तो मिली, लेकिन इसका कोई चुनावी फायदा पार्टी को नहीं मिला.
जयभगवान गोयल, अजय श्रीवास्तव और मंगतराम मुंडे शिवसेना की दिल्ली इकाई के संस्थापक सदस्य थे, लेकिन इनकी आपस में अनबन रहती थी. यूपी की तरह ही ठाकरे कभी भी चुनाव प्रचार के लिये दिल्ली नहीं आये. मार्च 1999 में उनका सम्मान करने के लिये दिल्ली के ताल कटोरा स्टेडियम में एक रैली आयोजित की गई थी, लेकिन ठाकरे उसमें भी शरीक नहीं हुए और अपने बेटे उदध्व को भेज दिया. उस वक्त तक उदध्व शिवसेना के कार्यकारी अध्यक्ष भी नहीं बने थे. बार बार गुजारिशों के बावजूद बालासाहब ठाकरे के दिल्ली न आने से उनके कार्यकर्ता हतोत्साहित हुए. दिल्ली के शिवसैनिकों की एक बडी तादाद भारतीय विद्यार्थी सेना की सदस्य थी, लेकिन जब राज ठाकरे ने शिवसेना छोडकर अपनी अलग पार्टी बनाना तय किया तो इन शिवसैनिकों को भी पार्टी में अपना कोई भविष्य नजर नहीं आया. अजय श्रीवास्तव अब शिवसेना के सक्रीय सदस्य नहीं हैं और जयभगवान गोयल ने भी पार्टी के वरिष्ठ नेताओं के साथ अनबन के बाद शिवसेना छोड़ दी है.
शिवसेना में शामिल होना चाहते थे वाघेला
शिवसेना के लिये गुजरात में उस वक्त एक मौका था जब शंकरसिंह वाघेला ने बीजेपी से बगावत की. बीजेपी से निकलने के बाद वाघेला ने खुद की एक पार्टी बनाई, लेकिन उससे पहले उन्होने शिवसेना से एक पेशकश की. वाघेला ने ठाकरे को संदेश भिजवाया कि वो अपने समर्थकों के साथ शिवसेना में शामिल होना चाहते हैं, लेकिन ठाकरे ने उनकी ये पेशकश ठुकरा दी क्योंकि वो बीजेपी से अपने रिश्ते नहीं बिगाड़ना चाहते थे. ठाकरे को इस बात की आशंका भी थी कि गुजरात में शिवसेना कोई झंडे गाड़ पायेगी क्योंकि शिवसेना के जन्म के बाद शुरूवाती सालों तक उसकी इमेज गुजराती विरोधी रही थी.
दिल्ली की तरह ही शिवसेना की राजस्थान विधानसभा में भी कोई मौजूदगी नहीं है. शिवसेना ने 1998 से शिवसेना राजस्थान विधान सभा चुनाव लड़ रही है, लेकिन बाल ठाकरे एक बार भी वहां चुनाव प्रचार के लिये नहीं गये. साल 2003 के चुनाव में सिर्फ एक बार उदध्व ठाकरे प्रचार के लिये गये थे. शिवसेना के हिंदुत्ववादी एजेंडे ने कुछ समर्थक जम्मू में भी जुटाये.
प्रमोद महाजन को पसंद करते थे बाल ठाकरे
ठाकरे के महाराष्ट्र से बाहर न जाने के पीछे एक दिलचस्प किस्सा है जो शिव सेना के मुखपत्र सामना में काम कर चुके लोग सुनाते हैं लेकिन कोई उसकी पृष्टि नहीं करता. बाल ठाकरे बीजेपी के दिवंगत नेता प्रमोद महाजन को बड़ा पसंद करते थे और उनपर भरोसा भी करते थे. केंद्र में वाजपेयी सरकार के दौरान ठाकरे जब भी किसी दूसरे राज्य में जाने की योजना बनाते, प्रमोद महाजन उनके शुभचिंतक के नाते ठाकरे के सामने प्रकट हो जाते. इंटैलीजेंस ब्यूरो यानी आई बी के संदेश का हवाला देते हुए वे ठाकरे को चेतावनी देते कि उनकी सुरक्षा को खतरा है. उन्हें मारने की साजिश रची जा रही है, इसलिये उन्हें सावधान रहना चाहिये इसके बाद ठाकरे का दौरा रद्द कर दिया जाता.
यहां एक बात स्पष्ट कर दूं कि इस किस्से की पृष्टि कर सकने वाले या इसे खारिज कर सकने वाले दोनो ही शख्स यानी कि बाल ठाकरे और प्रमोद महाजन अब इस दुनिया में नहीं हैं. जहां तक मुझे याद आता है ठाकरे एकमात्र बार लखनऊ गये थे बाबरी कांड से जुडी एक अदालती कार्रवाई में पेश होने के लिये. हालांकि, बीजेपी नेताओं ने कभी खुले तौर पर ये बात नहीं कही, लेकिन उन्हें डर था कि अगर शिवसेना महाराष्ट्र के बाहर बढ़ी तो आगे चलकर वो उसकी प्रतिद्वंदवी बन सकती है. शिव सेना के महाराष्ट्र तक सीमित रहने में ही बीजेपी की भलाई थी.
शिवसेना की राष्ट्रीय पार्टी बनने की महत्वाकंक्षा बरकरार
हालांकि, शिव सेना की राष्ट्रीय पार्टी बनने की महत्वकांक्षा बरकरार है लेकिन उसके सामने सबसे ताजा चुनौती मुंबई के अपने गढ को बचा कर रखने की है. फरवरी 2022 में बीएमसी के चुनाव हो सकते हैं, जहां शिव सेना से सत्ता छीनने के खातिर बीजेपी एड़ी चोटी का जोर लगा रही है. पिछले चुनाव में शिव सेना को सत्ता से बेदखल करने के लिये बीजेपी सिर्फ 2 सीटें पीछे थी.